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जरा सोच लो

जैसी सोच वैसा वक्त
जैसी सोच वैसा वक्त
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वो डीटीसी का ड्राईवर, पहनकर यमराज का ताज
उस पसीने से सरोबार श्रमिक से अचानक टकरा गया
वो शख्स फटे हाल, मिटटी से लथपथ, रोड की पटरी पर
मेरी चुप्पी पर, गुस्से की आंखों से प्रश्न पत्र थमा गया——

वो गुंडों का जमघट,
मेरे ही सामने इक लड़की
की इज्जत पर छींटा लगा गया
उस दिन भी मेरी खामोशी पर, वो जाते जाते
मेरे अंदर की हैवानियत का चेहरा दिखा गया——

उस दिन भी मोहल्ले के झगड़े में
मन मेरा यह मन, अपना एंटरटेनमैंट कर रहा था
तो आज भी मैं हर दिन किसी की परेशानी से, अपना टाईम पास कर रहा था
युं तो हर रोज दूजे के आंसू, जैसे मेरी बैचेनी का कोई टॉनिक ही बन गया—-

जब काम रुका मेरा तो मैने ढ़ूंढे लोभी
सेकी मैने उनकी हथेलियां, चाहे नतीजा हो जो भी
फिर अगर उसने ले ली रिश्वत, तो तुमको क्या गिला है
स्वार्थ जो हम सबके आंखों पर चढ़ पड़ा है
यह सोचे अब मीनाक्षी हम जानवरों को इंसान का तगमा किसने पहना दिया—–

हर रोज किसी के गिरने का तमाशा हम देखते हैं
हर रोज किसी के दुख की कहानी हम सुनते हैं
हर रोज किसी मंजर का तमाशाई हम बनते हैं
हर रोज अपनी अंतरात्मा की आवाज हम सुनते हैं
हर रोज ही हमने अपनी अच्छाई का खुद ही गला दबा दिया——-

मीनाक्षी भसीन 31-03-15© सर्वाधिकार सुरक्षित

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