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हिन्दी दिवस मुबारक हो—पर यह क्या

जैसी सोच वैसा वक्त
जैसी सोच वैसा वक्त
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आप सभी को हिन्दी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं। जहां तक मेरा सवाल है मेरा हिन्दी के प्रति अटूट स्नेह है। इसलिए नहीं कि यह मेरी मातृ-भाषा है या राष्ट्र-भाषा है। बल्कि इसलिए कि मैं इसी भाषा में पली-बढ़ी हूं। मैने इसी भाषा में सपने देखे हैं इसी भाषा में सोचा है। इसी भाषा में रिश्तों का आगाज किया है। इसका महत्व मेरी जीवन में क्या है, इसके लिए मुझे कानूनी किताबों को पढ़ने की कतई आवश्यकता नहीं है। यह भाषा तो मेरी आत्मा की अभिव्यक्तियों को उजागर करने का बहुमूल्य जरिया है। मैं तो अपने अस्तित्व की कल्पना भी इसके बिना नहीं कर सकती। सरकारी कार्यालय में कार्यरत होकर मुझे अवसर मिला–इससे संबंधी इतिहास और राजभाषा अधिनियमों को पढ़ने का और समझने का। मुझे तो यह समझ ही नहीं आता कि सरकारी या सामान्य रुप से लोग जो सारा दिन बैठ हिन्दी में बतियाते रहते हैं और तो और जिनका वास्ता अंग्रेजी से दूर दूर तक नहीं है, उन्हें हिंदी में काम करने से इतना परहेज क्यों है? और हमारी युवा पीड़ी तो अंग्रेजी में टूटे-फूटे शब्दों का प्रयोग करने में ही सम्मानित महसूस करती नजर आती है। ऐसे लगता है कि अंग्रेजी में बात कर और हिन्दी को नकार, उन्होंने अपने देश के विकास को चरम शिखर तक पहुचा दिया है और अंग्रेजी में बोलने की अक्षमता उन्हें हीनता ग्रस्त बना देती है। देखिए मसला भाषा का नहीं है, बात अपने देश के प्रति हमारे जज्बे से है। अभी हाल ही मेरे मित्र विदेश यात्रा जाने की तैयारी कर रहे हैं भई उन्हें कम्पनी लेकर जा रही है जिसमें वह कार्यरत हैं। हम सभी को कितना करेज होता है न बाहर जाने का। पर जब मैने उनके यात्रा की आटीनेरी देखी तो मुझे अजीब सी ग्लानि हुई उसमें सबसे पहले लिखा हुआ था कि जैसे ही आप विदेश में पहुचें आपके लिए आवश्यक होगा कि आप सिर झुकाकर वहां के लोगों से जो भी आपको मिले उनकी मातृ-भाषा में विश करें। वहां की संस्कृति वहां के लोगों का सम्मान करें। कितना अच्छा लिखा है पर ——- क्या आप अपने देश को, अपनी भाषा को इतना सम्मान देते हैं या अक्सर खिल्ली ही उड़ाकर अपना मन बहलाते हैं? हमारे स्कूल में एक प्रार्थना मैं अक्सर अपने जहन में रखती हूं ———–हमको मन की शक्ति देना मन विजय करें दूसरों की जय से पहले खुद को जय करें। हमारे देश को कभी सोने की चिड़िया कहा जाता था। हमारी संस्कृति, इतिहास बेजोड़ है पर फिर भी हम विकासशीन देशों में ही क्यों आकर सिमट गए हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है कि हम स्वयं का , अपनी भाषा का , अपनी संस्कृति का, अपने देश का मजाक उड़ाना ज्यादा पसंद करते हैं। सिर्फ खराबी निकालने में महानता नहीं है । जरा कोई एक काम सोचिए जिसे करते हुए आपने अपने देश के बारे में सोचा हो। अगर हम सभी अपने विचारों को ही अपने देशप्रेम की भावनाओं से भर दे तो वो दिन दूर नहीं कि हम हर क्षेत्र में विजयी पताका लहरा रहे होगें । जब आप ही अपना सम्मान नहीं करेगें तो दूसरे आपका सम्मान कैसे करेंगें । याद रखिए हमारा हित मात्र हमारे अधिकारों के लिए लड़ने में ही नहीं है पर हमारे कर्तव्यों के उचित निर्वाह में भी निहित है और अपने देश के प्रति भी हमारा सबसे पहला कर्तव्य है -अपने देश को सम्मान करना और इसे दिलवाना।
क्या किसी और देश में रिवाज है भाषा दिवस मनाने का और क्या महज सितम्बर में हिन्दी भाषा का महत्व है और अन्य महीनों में आप दूसरी भाषाओं में सोचना शुरु कर देते हैं———-
जिसमें होते है उत्पन्न मेरे नव-विचार, जिसमें देखूं मै अपने सपनों के अंबार
क्यों झिझक है? क्यों शर्म है? उसे वाक और कलम में क्यों न लूं उसे उतार
आओ करें, अपनी हिन्दी का सत्कार! हो मेरे भारत की जय-जयकार!

मीनाक्षी भसीन 12-09-14© सर्वाधिकार सुरक्षित

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