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गरीब ने दिखा दी मेरे मन की दरीद्रता

जैसी सोच वैसा वक्त
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गरीब ने दिखा दी मेरे मन की दरीद्रता

कुछ दिन पहले ही मेरे आठ हजार रुपये चोरी हो गए। मुझे इतना मलाल रहा मत पूछिए। ऐसा नहीं है कि यह मेरा पहला नुकसान था। पर यह नुकसान थोड़ा चौंका देने वाला था। जिंदगी तो चलती रहती है। सारे काम भी होते रहते हैं। पर इंसानी फितरत ही कुछ ऐसी है कि हम जिंदगी से मिलने वाले नायाब तोहफों को तो भूल जाते हैं पर थोड़ा सा नुकसान ही हमारे हंसते-खेलते चेहरे पर शिकन लाने के लिए काफी होता है। आज ऑफिस में जाते वक्त मैं इसी उधेड़बुन में थी कि मैट्रो से उतरकर देखा कि एक बूढ़ा रिक्शावाला सामने खड़ा है। अक्सर हमारी तवज्जो होती है कि हम किसी जवान रिक्शे वाले के पास ही जाएं । अरे भाई आप तो गल्त मतलब निकाल रहे हैं। मेरा मतलब है कि स्वार्थ तो हमारे खून में कूट-कूट कर भरा है। अब हम चाहते है कि जल्द से जल्द ऑफिस पहुंच जाएं। अब बेचारा बुजर्ग क्या रिक्शा चलाएगा। पर न जाने क्यों उस रिक्शेवाले के चेहरे पर इतनी बेबसी थी कि मैं उस रिक्शे पर बैठ गई। उसने मुझे बिठा तो लिया, पर वो बार-बार मैट्रो के निकास द्वार पर टक-टकी लगाकर देख रहा था। मैने उसे तेज आवाज में पूछा अरे भई तुम तो मेरा सारा टाईम वैस्ट कर रहे हो। मैं गुस्से में उतरने ही लगी तो उसने मुझे बताया कि एक सवारी के बीस रुपये रहते हैं। उस सवारी ने कहा था कि खुले नहीं है, तो मैं उस सवारी का पिछले आधे घंटे से इंतजार कर रहा हूं। मैने कहा, अच्छा तो आप ठहरिए मुझे देर हो रही है, मैं दूसरा रिक्शा ले लेती हूं । इस पर उसने हंसते हुए कहा कि पैसे गए तो गए भगवान कुछ न कुछ तो जरिया बना ही डालेगा। आप बैठ जाईए । यदि वो सवारी ईमानदार होगी तो कभी न कभी तो मुझे मेरे पैसे वापिस मिल ही जाएगें। मेरी सारी शिकन जैसे छूमंतर हो गई। मेरा नुकसान तो फिर भी छोटा ही था पर इस गरीब दीन-हीन के तो एक चक्कर की मेहनत ही कोई उड़ा ले गया। सोच कर भी देखो इतनी तपती गरमी में बुढ़ापे में यह रिक्शा चला रहा है और इन्हें मिलता भी क्या है। मुझे अपने आप पर बहुत गुस्सा आया कि मैं नाहक ही महज कुछ पैसों के लिए परेशान हो रही थी जबकि ईश्वर ने मुझे बहुत कुछ दिया है। मैने कई लोगों को इनसे पांच-पांच रुपये के लिए लड़ते देखा है। हो सकता है कि यह आपसे थोड़ा ज्यादा भी ले रहे हो पर क्या सचमुच इससे आपकी जेब को क्या बहुत फर्क पड़ता है यह मेरा सवाल उच्च वर्ग के तथाकथित अपर क्लास के लोगों से है। दान की बातें तो हम हर जगह करते रहते हैं। मंदिरों में जाकर पत्थरों पर कितने पैसे गिराते हैं। मिठाईयां या खाने पीने की चीजें चढ़ाते हैं। मूर्तियों को कपड़े पहनाते हैं। मेरी नराजगी मंदिरों से कतई नहीं है। मैं तो खुद मंदिर जाती हूं। और न ही मैं महान हूं जो आपको उपदेश दे रही हूं। मैं तो आप से बस यह गुजारिश कर रही हूं कि दोगला जीवन मत जिएं। असली दान तो किसी गरीब के चेहरे पर मुस्कराहट लाना है। आप जो देंगे वही आपको मिलेगा। जरा सोचिए
मीनाक्षी भसीन 9-09-14© सर्वाधिकार सुरक्षित

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